सत्यजीत रे ■ नवतम Cinema Technic के प्रणेता और world Cinema के प्रांगण में भारत का चेहरा
सिनेमा बनाना एक कला प्रक्रीया है लेकिन आजकल बढती व्यावसायिकता को देेखते सिनेमा को व्यावसायिक प्रकल्प के तौर पर देखा जा रहा है । सिनेमा भी करोडो के आकडोंमें मुनाफा बटोर रहा है ये अच्छी बात है लेकिन तांत्रिकता के अवडंबर में सिनेमाने अपनी आत्मा खो दी है ये भी एक कडवा सच है। अब सिनेमा में जीवन दर्शन कहां होता है जैसे पुरानी फिल्मोंमें होता था।
सिनेमा सहजतासे जीवन दर्शन देने की कला है ..इस बात का एहसास बचपन में ही दूरदर्शन पर सत्यजीत रे की फील्में देखकर हुवा था ।तब हर शुक्रवार की रात को दूरदर्शन पर world Cinema की फिल्में दिखायी जाती। कभी आल्फरेड हीचकाॅक, कभी कुरोसावा और कभी सत्यजीत रे जी की फिल्में देखने मिलती। एक कहानी को कीतनी बारीकीसे कहा जा सकता है इस का अनूभव रे सर की फील्में देखकर होता था। दृश्य दिन के कीस प्रहर में घट रहा है इसका विचार भी रे करते थे।
सिनेमा तंत्र की बहोत सी बातों को सत्यजीत रे प्रणेते रहे है। खासकर प्रतिकात्मक दृश्य चित्रण का चलन उन्ही के फिल्मोंसे शुरू हुवा।
प्रतिकात्मक दृश्य चित्रण अर्थात Symbolism
प्रतिकात्मकता के भी सत्यजित रे प्रणेता है । प्राणोत्क्रमण होतेही दीये की फडफडाती लौ के बुझने की प्रतिकात्मकता से आत्मजोत बुझना सूचित करना या फिर देवर के आनेसे नाईका के जीवन में तूफान आने वाला है..ये सूचित करने के लिये देवरका बरसाती तूफान में भीगे हुवे हवेली मे प्रवेश करना ..इस तरह की प्रभावी प्रतिकात्मकता का उपयोग सत्यजीत रे जी ने पहली बार सिनेमा के पर्देपर कीया । अपू की बहन जब बरसाती रात में झोपडी में दम तोडती है तब जोरोंसे चल रही हवासे खड़खड़ाते खिडकी के दरवाजे..ऐसे कई दृश्य याद आते है। ये बात और है की हिंदी व्यावसाईक सिनेमाने इस प्रतीकात्मकता का आगे चलकर कुछ जादा ही इस्तमाल किया और उसे प्रभावहीन सा कर दीया। इस निर्देशकीय कलाकारी को symbolic Direction कहा जाने लगा .. मुझे याद है जब हिंदी फिल्म में नायक नायिका का चुंबन दृश्य अभिप्रेत होता तो camera धीरेसे दो फूलोंपर चला जाता.. कुछ निर्देशक इन फूलोंको एक दूसरेपर गिरते हूवे भी दीखा देते.. तब सिनेमा हॉल में बैठा कोई प्रेक्षक ..सराहना करते हुवे.."डायरेक्शन है..डायरेक्शन है!!!" ऐसे पुटपुटाता। सत्यजीत रे सर की वास्तव वादीता को so called art film वालोंने कुछ जादा ही गंभीरतासे लिया ।लेकिन ये फील्मे निरसता ही जिंदगी की वास्तवता है ऐसा केहने लगी।
अतिवास्तववाद (Surrealism) को छूता सत्यजित रे का वास्तववाद
अगर सत्यजित रे को वास्तववादी फिल्मकार कहा जाये तो वो पुरी तरह से सच नहीं होगा।
सत्यजीत रे को अद्भुत रम्यता (Fantasy) में बडी रूची थी। न केवल बच्चोंकी मानसीकतासे बल्की अपनी कहानियोंमें उन्होने वयस्क पात्रोंकी मानसिकतासे अद्भूतरम्य कहानियां पिरोयी और सामाजिक विडंबनायें और वीरोधाभासोंका रंजकतासे परामर्श लिया।
हालांकी सत्यजीत रे जी की फील्मे न कलावादी थी ना वास्तवादी.. वो तो जीवन दर्शन कराते साफ आईने सी रही है।
...आईना...जिसमें जीवन का प्रतीबिंब है .. स्त्री के अंतरमन का शोध है.. बच्चोंकी मनोव्यथायें हैं.. जमींदारोंके खोखले महल भी हैं और गरीब के आशावादी झोपडे भी हैं ..जिसमें मिट्टी के चुल्हे पर पकते चावल की भाप से उबलता झाग रटरटाते बाहर आता है.. मानों मानवी भावनाओंका लाव्हा अपनी गेहराईयोंसे जीवन संवेदनाओंको समृद्ध करने उमड आया हो.. World Cinema में सत्यजीत रे जी का योगदान अमूल्य रहा है और इसीके चलते उन्हे Oscar के life time achievement Award से सम्मानित किया गया है।
महानतम जापानी निर्देशक अकीरा कुरोसावा जी ने कहा है "जिसने सत्यजीत रे का Cinema नही देखा वो जीवन दर्शन से वंचित रहा है"
क्या आपने सत्यजीत रे की कोई फिल्म देखी है?
-अविनाश घोडके
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