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दादा कोंडके - मराठी काॅमेडी सुपरस्टार । the man who dared to introduce genre of sex comedy to regional cinema


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दादा कोंडके : देहाती माँ का भोला गँवार बेटा । innocent Sex Comedy 

Written by Avinash Bhanu Asha Ghodke

70 के दशक में गर कोई फिल्म लगातार 25 हफ्ते किसी थिएटर पर चलती रहती तो फिल्म को 'सुपर हिट' करार दिया जाता  और उस फिल्म की 'सिल्व्हर ज्युबिली' धूमधामसे मनाई जाती  । भारतीय सिनेमा में Sex Comedy का दौर शुरू करने वाले  दादा कोंडके पूरी दुनिया में एक अकेले अभिनेता-निर्माता-निर्देशक थे  जिनकी लगातार 9 फिल्में 'सिलव्हर ज्युबिली' हुयी है। उनका यह  रिकार्ड 'Guinness book of world record' में भी दर्ज है। 

Tight close up of actor Dada Kondke  with Mischievous eyes and mouth wide open

मुंबई की नायगाव की कामगार बस्ती में कृष्ण जन्माष्टमी के दिन जन्मे कृष्णा खंडेराव कोंडके आगे चलकर ज्युबिली स्टार दादा कोंडके बने।  सुना है नायगांव इलाके में कभी उनकी दादागिरी चलती थी सो 'दादा' ये उपनाम आ गया।अभिनेता नीलू फुले जी के 'सेवादल' इस नाट्यसंस्था से  जुडकर दादा नाटक करने  लगे। और एक दिन Iconic comedy actor बनके मराठी सिनेजगत में छा  गये. 


दादा बेबाक थे। सीधी और सरल ऐसी बात होती थी उनकी।  दांभिकता जरा भी नहीं। उनके करिश्मेने 70 के दशक में धूम मचा रखी़ थी। 1971 में प्रादेशिकता के मुद्देपर बालासाहब ठाकरे जी ने भी दादा का पक्ष लिया था। तब दादा की पहली मराठी फिल्म ' सोंगाड्या'  देव आनंद जी की फिल्म 'तेरे मेरे सपने ' के लिये मुंबई के कोहिनूर थिएटर से उतारी गयी थी . 'सोंगाड्या' पूने में 25 हफ्ते चल चुकी  थी और अब दादा उसे मुंबई में प्रदर्शित कर रहे थे।  अचानक फिल्म को कोहिनूर थिएटर से उतारे जानेपर दादा व्यथित हुवे। दादाने बालासाहब जी से मिलकर अपनी ये व्यथा सुनायी। बाळासाहब ठाकरे जी ने भी प्रादेशिक सिनेमा की प्रार्थमिकता के मुद्दैपर अब आक्रमक आंदोलन छेड दिया। सोंगाड्या फिल्म के पोस्टर फिर एक बार कोहिनूर थिएटर के फलक पर विराजमान हुवे।  कोहिनूर में अब दादा की इस फिल्म ने  37 हफ्तोंतक दर्शकोंका प्यार बटोरा। वक्त के चलते दादा और बालासाहब जी की मित्रता भी बढी । दादा ने आगे ठाकरे जी की शिवसेना से जुडकर 'चित्र सेना' का संगठन  किया  जो प्रादेशिक सिनेमा की बुलंद आवाज बना। 

पहली फिल्म सोंगाड्या का प्रसिद्ध गीत "काय गं सखू" सौजन्य YouTube 


अपनी पहिली फिल्म 'सोंगाड्या' की सफलता में लेखक वसंत सबनीस जी का बहोत बडा हात है ऐसा दादा अक्सर कहा करते थे। । सोंगाड्या से पेहले दादा ने एक बहोत ही सफल लोकनाट्य ' विच्छा माझी पुरी करा' में मुख्य पात्र निभाकर दर्शकोंमें अपना परिचय बनाया था।  इस लोकनाट्य का लेखन भी वसंत सबनीस जी ने ही किया था। सोंगाड्या के बाद एक के बाद एक दादा की फिल्में लगातार हिट होती रही। पर्देपर साकारीत अपने सुप्रसिद्ध भोले गंवार  पात्र के जरीये दादा आम दर्शकोंके दिलों को छू जाते । "ग्रामीण मां का भोला गंवार बेटा" बनकर दादाने दर्शकोंकी भावनिक नस को पकड लिया था। उनके double meaning dialogues  के आगे सेंसर बोर्ड हतबल रह जाता।  "आप उस तरह सोचते है इसमें मेरा क्या दोष " ये दादा का युक्तीवाद रेहता और उसपर 'सेंसर बोर्ड' हाथ टेंक देता।  उनका सिनेमा देखते वक्त दर्शक सारी तांत्रिकता भूलकर पटकथा में पिरोये गतीशील और रोचक प्रसंगों में खो जाते थे। 

 हिंदी फिल्मोंके जानेमाने स्टार गोविंदा थोडे बहुत उनकी तरह दिखते है और कुछ हद़ तक उनकी अभिनय शैली भी अपनाते है । ये भी सच है की गोविंदा दादाको आदर्श मानते  रहे है। एक बार जब गोविंदा पास वाले सेटपर शूटिंग कर रहे दादा को मिलने पहुंच गये । गोविंदा को देख़ दादा बोले "तू तो वाकई में मेरे जैसा दिखता है " आगे गोविंदा ने उनकी एक मराठी फिल्म के हिंदी रिमैक में मुख्य पात्र निभाया । खैर ये फिल्म तो चली नहीं,और चलती भी कैसे। दादा unique थे। उनका 'मॅजिक' कोई कॉपी नहीं कर सकता। संगीतकार राम कदम जी का संगीत उनकी फिल्म का आत्मा होता था।  उनकी फिल्म का "वर ढ़गाला लागली कळं" var dhagala lagli kal गाना लोग आज भी मजे़ लेकर सुनते है।

 हां उनकी फिल्म के संवाद डबल मीनिंग के होते थे।लेकिन दादाने आखि़रतक ईस बात को कतई स्वीकारा नहीं।  अपने भोले गंँवार पात्र के जरीये दादा इन संवादोंको मासूमियत के आवरण में लपेटकर चालाकीसे बखूबी पेश करते थे। उनकी घुटने तक आती ढीली पैंट और सामने लटकते दो नाडे ये दादा कोंडके जी के iconic पात्र के परिचय चिन्ह है जो स्वैरता नहीं बल्की मुक्तता सूचित करते है। दादा की फिल्में एक तरह से हास्यरंग की होली होती थी जिसमें मानसिक कुंठाओंको दादा जला देते थे। ऐसा करते हुवे दादा ने कभी स्वैराचार को बढावा नहीं दिया।फिल्मोंमें भी उनको रोकने के लिये एक ग्रामीण जुझारू माँ होती थी मानो असल में वो ही उनकी inbuilt Scensor board थी। हर फिल्म में ये माँ का पात्र अभिनेत्री रत्नमाला जी ही निभाती थी जो कभी बदली नहीं गयी। मातृत्व का सेंसाॅर मानने वाले दादाने अपने हाथ और विचार मुक्त रखे क्योंकी जकडे हुवे हाथोंसे और विचारोंसे नीतिमत्ता नहीं संभाली जाती. अपनी फिल्मोंके जरिये दादा  शायद यही सूचित करना चाहते थे।भारतीय सिनेमा की sex comedy का एक नया आयाम देनेवाले दादा कोंडके जी के दर्शक कभी भूल नहीं पायेंगे।  

 क्या आपने दादा कोंडके जी की कोई फिल्म देखी है?  आपके अनुभव और मत को comment में जरूर साझा कीजीये ।

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